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बॉलीवुड सिनेमा के स्तंभ माने जाने वाले एक्टर ओम पुरी की 18 अक्टूबर 2018 को 67वीं जयंति है। पद्मभूषण से सम्मानित ओमपुरी का जन्म 18 अक्टूबर, 1951 को पटियाला में हुआ था, ओम पुरी का 6 जनवरी 2017 में निधन हो गया था, एक समय था जब ओम पुरी नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के साथ मिलकर हिंदी के समानांतर सिनेमा की पहचान बनाते थे, किसी फिल्म में इन सबका या इनमें से किसी एक का होना भी उसके गंभीर होने की गारंटी माना जाता था, इनकी मौजूदगी भर किसी फिल्म को कला फिल्म का दर्जा दिला देती थी, यह वह दौर था जब सतही किस्म के ऐक्शन और रोमांस की फिल्मों से हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा बनती थी, निस्संदेह इसी दौर में कुछ ‘साफ़-सुथरी’ मानी जाने वाली पारिवारिक फिल्में और कुछ ‘स्वस्थ’ समझी जाने वाली हास्य फिल्में भी बनती रहीं, लेकिन उस दौर के सिनेमा के बौद्धिक विमर्श की केंद्रीय ज़मीन इन्हीं समानांतर, या कला फिल्मों से बनती थी, जो फिल्में तब बेमिसाल लगती थीं, वे अचानक आडंबरी बौद्धिकता की शिकार जान पड़ती हैं, उनके संवाद नकली लगते हैं, उनके कथा सूत्र स्वाभाविक नहीं मालूम होते, उनका कैमरा बहुत सायास ढंग से कुछ दिखाने की कोशिश करता दिखता है, वे फिल्में ‘यथार्थ’ को यथार्थ के सरलीकरण के साथ पकड़ने वाली फिल्में थीं जो हमें इसलिए प्रिय थीं कि उस कारोबारी फिल्मी दुनिया के बहुत सारे भोंडेपन से दूर वे एक राजनीतिक-सामाजिक संदेश देने की कोशिश करती थीं|
इन फिल्मों सबसे अच्छी चीज जो हमें लगती थी? निस्संदेह, वह अभिनय जो इन फिल्मों को एक अलग तरह की आभा देता था, फिल्म ‘आक्रोश’ में आदिवासी ओम पुरी की सुलगती हुई ख़ामोश आंखें जैसे हमारा पीछा नहीं छोड़ती थीं, ‘अर्धसत्य’ में एक बेबस पुलिस इंस्पेक्टर के भीतर पैदा होने वाली कुंठा और गुस्से को ओम पुरी के अभिनय के साथ हम अपने भीतर लिए लौटते थे, ‘मिर्च मसाला’ का चौकन्ना चौकीदार यह भरोसा दिलाता था कि उसके होते लड़कियों का कुछ बिगड़ेगा नहीं, यह उन फिल्मों का सौभाग्य था कि उन्हें ओम पुरी जैसे विलक्षण अभिनेता मिले, ओम पुरी सबसे अनगढ़ थे- बहुत ही सामान्य और खुरदरी शक्ल-सूरत के मालिक, बेशक उनकी आवाज़ में एक अलग तरह का खुरदरापन था, लेकिन वे इस आवाज़ का भी बहुत करीने से इस्तेमाल करते थे,शायद यह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रशिक्षण का असर रहा हो कि वे जटिल से जटिल भूमिकाएं बिल्कुल सहजता से कर जाते थे,रंगमंच, सिनेमा, टीवी हर जगह उन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी, एनएसडी की कुछ बेहतरीन और यादगार प्रस्तुतियां उनके बिना अधूरी होतीं, ‘तमस”, ‘राग दरबारी’ और ‘कक्का जी कहिन’ जैसे टीवी सीरियलों में उनका अभिनय एक अलग आयाम जोड़ता था, बाद के दौर में वे मुख्यधारा वाली कारोबारी फिल्मों से भी जुड़े और कई चुलबुली और हास्य भूमिकाओं में भी दिखे जिनमें ख़ासकर चाची 420 और मालामाल वीकली में उनका काम यादगार कहा जा सकता है|
सत्तर और अस्सी के दशक में अपने माध्यम के साथ प्रयोग की दुस्साहसिकता और उसके बीच लोगों को एक संदेश देने की प्रतिबद्धता कोई छोटी चीज़ नहीं थी, वे प्रयोग अब कुछ बदले हुए रूप में जारी हैं, सिनेमा बौद्धिक नहीं, बल्कि कस्बाई होने की कोशिश कर रहा है, संवादों का ढंग बदल गया है, कैमरे बहुत तेज़ हो गए हैं और ऐसे कोणों से ज़िंदगी को पकड़ने की कोशिश करते हैं जिनमें वह बिल्कुल अपने कच्चे-अनगढ़ रूप में दिखाई पड़े, इस दौर में अच्छे अभिनेताओं की चुनौती भी बढ़ी है,
यह सच है कि हिंदी सिनेमा जिस ओम पुरी को याद करता है, वह सत्तर और अस्सी के दशकों में लरजती आंखों और खुरदरी आवाज़ वाला वह अभिनेता था जिसके बगैर कई फिल्में वह प्रामाणिकता हासिल न कर पातीं जो कर पाईं, यह कुछ उदास करने वाला अफ़साना है कि किस तरह समानांतर सिनेमा के सभी कलाकार धीरे-धीरे उस दुनिया से दूर होते चले गए, स्मिता पाटिल तो सबसे पहले विदा हो गईं, अमरीश पुरी, ओम पुरी और नसीरुद्धीन शाह ने भी रास्ता बदल लिया, यही वजह है कि ये सब उस दुनिया में बार-बार लौटते रहे, नसीर और ओम पुरी और कई दूसरे कलाकार गाहे-बगाहे अब भी नाटक करते रहे और ऐसी फिल्मों में दिखाई पड़ते रहे जो लगता है, उनके अभिनय के लिए ही बनी हैं, लेकिन हिंदी सिनेमा अब पहले से बहुत बदल गया है, कई ऐसे निर्देशक जो पहले कला फिल्मों वाले दायरे में रख लिए जाते, आजकल कारोबारी फिल्मों के ही निर्देशक हैं और अच्छी फिल्में भी बना रहे हैं, यही बात अभिनेताओं के बारे में कही जा सकती है, ओम पुरी के अभिनय की विरासत जिन दो कलाकारों में सबसे साफ़ ढंग से पहचानी जा सकती है, वे इरफ़ान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी हैं, वे किन्हीं कला फिल्मों के नहीं, ठेठ कारोबारी फिल्मों के अभिनेता हैं और अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख़ खान तक को अपने अभिनय से चुनौती देते हैं, अभिनय के जिस व्याकरण को उन्होंने अपने ढंग से साधा और इस्तेमाल किया, वह अब भी इतना कारगर और प्रामाणिक है कि नई पीढ़ियों के काम आता है और आता रहेगा, यह मलाल ज़रूर बना रहेगा कि वह आक्रोश और प्रतिबद्धता शायद किन्हीं पुराने ज़मानों की चीज़ हो गए हैं जिनके बीच ओम पुरी और कई कलाकारों ने अपने-आप को रचा था, यह पता भले न चले, मगर दुनिया को ये सारी चीज़ें चुपचाप कुछ-कुछ बदलती रहती हैं|
66 वर्षीय ओम पुरी ने मुंबई में 6 जनवरी 2017 को सुबह अंतिम साँसें लीं, उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में ओम पुरी ने अपनी मौत के बारे में बात की थी और कहा था कि उनकी मौत अचानक ही होगी, एक इंटरव्यू में ओम पुरी ने कहा था, ''मृत्यु का भय नहीं होता, बीमारी का भय होता है, जब हम देखते हैं कि लोग लाचार हो जाते हैं बीमारी की वजह से और दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं, उससे डर लगता है, मृत्यु से डर नहीं लगता,'' मार्च 2015 में लिए गए इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ''मृत्यु का तो आपको पता भी नहीं चलेगा, सोए-सोए चल देंगे, आपको पता चलेगा कि ओम पुरी का कल सुबह 7 बजकर 22 मिनट पर निधन हो गया, '' और ये कहकर वो हंस दिए, और असल में हुआ भी ऐसा ही, सवेरे अचानक उनके निधन की ख़बर आई|
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