सफ़ेद बनियान पहनकर मूंछों को ताव देती हुई चंद्रशेखर आज़ाद की तस्वीर साहस एवं राष्ट्रप्रेम की एक ऐसी मिसाल है जो हर भारतीय के ज़ेहन में हमेशा रहेगी, चंद्रशेखर आजाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे, उन्होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे काकोरी काण्ड तथा सांडर्स-वध को अंजाम दिया, आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के एक महत्वपूर्ण अंग थे और भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की चौकड़ी का एक हिस्सा थे।
आज़ाद का जन्म तत्कालीन मध्यप्रदेश के अलिराजपुर ज़िले के भाभरा गाँव में हुआ था में हुआ था और उनका बचपन का नाम चंद्रशेखर तिवारी था, वे अपने गाँव में रहनेवाली भील जनजाति के बच्चों के साथ बड़े हुए और उनका खेलों से विशेष लगाव था।
चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ, आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर राज्य में रहे और फिर भावरा में बस गए, यहीं चंद्रशेखर का जन्म हुआ, वे अपने माता पिता की पाँचवीं और अंतिम संतान थे, उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था, पितामह मूलतः कानपुर जिले के राउत मसबानपुर के निकट भॉती ग्राम के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण तिवारी वंश के थे।
चंद्रशेखर आजाद के बारे में तथ्य
जन्मतिथि - 23 जुलाई 1906
जन्म स्थान - भावरा, मध्य प्रदेश
माता - जगरानी देवी
पुण्यतिथि - 27 फरवरी 1931 (24 वर्ष की आयु में )
पिता - पंडित सीताराम तिवारी
शिक्षा - भावरा, तदुपरांत उन्हें उच्च शिक्षा के लिए उत्तर प्रदेश के वाराणसी की संस्कृत पाठशाला
प्रसिद्ध नाम - आजाद
राजनीतिक कैरियर - क्रांतिकारी नेता, स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिक कार्यकर्ता
चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं0 सीताराम तिवारी से प्राप्त किए, ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे, उन्हें संस्कृत की पढाई के लिए बनारस के काशी विद्यापीठ भेजा गया जहाँ राष्ट्रवादी आंदोलन से उनका परिचय हुआ।
1919 मे हुए जलियां वाला बाग नरसंहार ने उन्हें काफी व्यथित किया 1921 मे जब महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होने उसमे सक्रिय योगदान किया, इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे गिरफ़्तार हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली, सजा देने वाले मजिस्ट्रेट से उनका संवाद कुछ इस तरह रहा -
तुम्हारा नाम - आज़ाद
पिता का नाम - स्वाधीन
तुम्हारा घर - जेलखाना
मजिस्ट्रेट ने जब 15 बेंत की सजा दी तो अपने नंगे बदन पर लगे हर बेंत के साथ वे चिल्लाते - महात्मा गांधी की जय, बेंत खाने के बाद तीन आने की जो राशि पट्टी आदि के लिए उन्हें दी गई थी, को उन्होंने जेलर के ऊपर वापस फेंका और लहूलुहान होने के बावजूद अपने एक दोस्त डॉक्टर के यहाँ जाकर मरहमपट्टी करवायी, इस घटना के बाद चंद्रशेखर ने आज़ाद की पदवी धारण कर ली और चंद्रशेखर आजाद के रूप में पहचाने जाने लगे।
चौरी-चौरा की घटना के कारण असहयोग आंदोलन के महात्मा गांधी के निलंबन से मोहभंग, वह एक गरमदलीय में बदल गये, चंद्रशेखर आजाद समाजवाद में विश्वास करते थे, और वे सान्याल द्वारा बनाए गए उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर बनाए गए दल हिन्दुस्तानी प्रजातात्रिक संघ (एच आर ए) में शामिल हो गए, इस संगठन ने जब गाँवों में अमीर घरों पर डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके तो तय किया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा।
एक गाँव में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का तमंचा छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उसपर हाथ नहीं उठाया, इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल शामिल थे, की बड़ी दुर्दशा हुई क्योंकि पूरे गाँव ने उनपर हमला कर दिया था, इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया।
इस संघ की नीतियों के अनुसार काकोरी कांड को अंजाम दिया गया, लेकिन इससे पहले ही अशफ़ाक उल्ला खान ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा, और ऐसा ही हुआ।
अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया, इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय रहा और एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन यह योजना पूरी न हो सकी।
दल का पुनर्गठन किया गया जिसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएसन रखा गया, इसके गठन का ढाँचा भगत सिंह ने तैयार किया था पर इसे आज़ाद की पूर्ण समर्थन प्राप्त था, लाल लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पायंट्स सांण्डर्स को मार डाला, जीवित रहते हुए वे अंग्रेज़ सरकार के लिए आतंक का पर्याय रहे।
1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई थी, 1925 में काकोरी कांड के फलस्वरूप अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद 'बिस्मिल' सहित कई अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मृत्यु-दण्ड दिया गया था, इसके बाद चंद्रशेखर ने इस संस्था का पुनर्गठन किया।
आज़ाद के प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था, जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने 'फासीवदी मनोवृत्ति' के रूप में किया है, इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है।
चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गई, सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी उन्होंने की ।
झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर मे शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को 1 दिसम्बर 1930 को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते वक्त शहीद कर दिया था।
27 फरवरी 1931 को वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से मिले और आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें, नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की, इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने भुनभुनाते हुए बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब आज़ाद पार्क कर दिया गया है) चले गये।
अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखाविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया, इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए, पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी, उनके मृत शरीर पर गोलियाँ चलाकर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि की गई। आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी, पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिए उनका अन्तिम संस्कार कर दिया ।
शाम के वक्त उनकी अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला और सभा हुई, सभा को शचिन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीरामबोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया।
आजाद एक देश भक्त थे, अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से सामना करते वक्त जब उनकी पिस्तौल में आखिरी गोली बची तो उसको उन्होंने खुद पर चला कर शहादत दी थी, उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े, आजाद की शहादत के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।
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