लाल टमाटर उगाने वाले किसानों के चेहरे पड़े पीले, ग्राहकों को दे रहे ऐसा विकल्प, सुनकर चौंक जाएंगे

प्रदेश में खेती-किसानी को लेकर संवेदनशील दिखने वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरे लॉकडाउन के दौरान खासकर कृषि क्षेत्र की लगातार सुध ली। धान और गन्ना उत्पादकों के लिए राजीव गांधी किसान न्याय योजना निश्चित रूप से राहत भरा कदम है। हालांकि इस योजना का लाभ धान और गन्ना उत्पादकों तक ही सीमित है। यह ठीक है कि प्रदेश में इन दोनों फसलों का रकबा भी अपेक्षाकृत ज्यादा है, फिर भी ऐसे तमाम इलाके हैं, जहां फल और सब्जियां भी बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं। किसानों के चेहरे पीले क्यों पड़ गए हैं लॉकडाउन के दौरान आवागमन बंद रहने के कारण किसानों को अपनी फसल औने-पौने भाव में अपने खेत, गांव या कस्बों में ही बेचनी पड़ी। कुछ जगह तो सब्जियां खेतों में ही सूखने या सडऩे के लिए छोड़ दी गईं। अभी ताजा मामला जशपुर के टमाटर किसानों का है, जिन्होंने आखिरकार मजबूर होकर अपनी फसल को कौडिय़ों के भाव बेचना शुरू कर दिया है। यहां बस 10 रुपये दीजिए और खेतों से जितनी मर्जी उतना टमाटर तोडकऱ ले जाइए। सवाल है कि लाल-लाल टमाटर उगाने वाले इन किसानों के चेहरे पीले क्यों पड़ गए हैं छोटा वर्ग सियासत के एजेंडे पर कैसे आए जशपुर में टमाटर किसानों का यह 10 रुपये वाला उदासीन ऑफर चौंकाता जरूर है, लेकिन प्रदेश में सब्जी जैसी कच्ची फसल उगाने वाले किसानों की पीड़ा की झलक भी पेश करता है। दरअसल राज्य में सब्जी जैसी फसलों की कोई सुनियोजित भंडारण और विपणन व्यवस्था न होना समस्या की जड़ है। एक तो ऐसे किसानों की संख्या कम है और फिर इनका कोई एकीकृत संगठन भी नहीं है। इसके चलते इनकी आवाज ज्यादा से ज्यादा ब्लॉक या जिले की सरहद तक ही सिमटकर रह जाती है। सरकार या फिर विपक्षी पार्टियां भी इनकी ओर कम ही ध्यान देती हैं। प्रदेश में धान पर सियासी रोटियां चाहे जितनी भी सेंकी जाएं, अन्य फसल उगाने वाले किसान तो अभी सिस्टम के हाशिये पर ही हैं। सवाल है कि किसानों का यह अपेक्षाकृत छोटा वर्ग सियासत के एजेंडे पर कैसे आए। घाटे की भरपाई का भार सरकार ने उठा लिया इस दिशा में छत्तीसगढ़ को हरियाणा मॉडल पर विचार करना चाहिए। कुछ समय पहले तक हरियाणा में भी सब्जी उत्पादक कमोबेश ऐसे ही हालात में थे। कब फसल सड़ जाए, मंडी समितियां कब हाथ खड़े कर दें और रेट क्या मिले, ये सब रामभरोसे था। ऐसे किसानों के लिए भावांतर योजना बड़ी राहत लेकर आई। भावांतर मतलब भाव में अंतर। यदि किसानों को मंडी में घोषित न्यूनतम मूल्य से कम का रेट मिलता है तो मूल्य के अंतर की भरपाई सरकार करती है। किसानों को तो बस अपनी फसल का पंजीकरण भर कराना होता है। भावांतर योजना का सकारात्मक असर अभी लॉकडाउन के दौरान ही देखने को मिला। किसानों को मंडियों में फसल बेशक सस्ते में बेचनी पड़ी, पर घोषित न्यूनतम मूल्य के घाटे की भरपाई का भार सरकार ने उठा लिया। सरकार ने तो बस समन्वय का काम किया हालांकि हरियाणा में भावांतर योजना सफल होने का सबसे बड़ा कारण वहां जरूरी संसाधनों की पहले से ही मौजूदगी है। वहां की मंडी समितियां सक्रिय हैं और वहां पर्याप्त संख्या में शीतगृह भी मौजूद हैं। सरकार ने तो बस समन्वय का काम किया। बहरहाल भावांतर योजना लागू होने के बाद अब वहां के किसान अपनी फसल के सडऩे या खराब होने या फिर कम रेट मिलने की आशंका से एक हद तक दूर हैं। अब यदि हरियाणा के चश्मे से छत्तीसगढ़ को देखें तो यहां सबसे पहली जरूरत उत्पादक जिलों में शीतगृहों के निर्माण की होगी। सब्जी उत्पादकों को सरकारी स्तर से प्रोत्साहन और संरक्षण भी देना होगा। दुर्ग जिला सब्जी उत्पादन में पूरे प्रदेश का सिरमौर है। बस्तर संभाग में इंद्रावती के करीब दो दर्जन गावों में बड़े पैमाने पर सब्जी उगाई जाती है। मुंगेली और जांजगीर-चांपा जैसे जिलों में भी सब्जी का खासा रकबा है। बालोद का शरीफा, राजिम का तरबूज और जशपुर के टमाटर के तो अनगिनत कद्रदान हैं। इन तमाम जिलों की सब्जियां और फल दूरदराज तक भी भेजे जाते हैं। ऐसे में जबकि प्रदेश सरकार धान का रकबा लगातार कम करने की कोशिशों में है, सब्जी या फल का उत्पादन निश्चित रूप से बेहतर विकल्प के तौर पर उभर सकता है। बस जरूरत इतनी है कि सरकार धान की तरह अन्य फसल उगाने वाले किसानों के दर्द को भी अपने सरोकार का हिस्सा बनाए। लॉकडाउन की बंदिशों ने ऐसे किसानों की कमर तोड़ दी है। फिलहाल इसे सीधा करने की जरूरत है।
कोरोना महामारी से लडऩे के लिए अंधविश्वास नहीं, बल्कि जागरूकता और विश्वास जरूरी

उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ इलाकों से आ रही खबरें बताती हैं कि महिलाएं कोरोना संक्रमण को लेकर अंधविश्वास का शिकार हो रही हैं। महिलाएं समूह में एकत्रित होकर कोरोना वायरस को भगाने के लिए पूजा अर्चना कर रही हैं। यह वाकई तकलीफदेह है कि महिलाओं ने अंधविश्वास के चलते कोरोना वायरस को देवी मान लिया है। महिलाओं का मानना है कि कोरोना माई की पूजा करने से इस महामारी से बचा जा सकता है। इन महिलाओं का मानना है कि कोरोना बीमारी नहीं, देवी के क्रोध का कहर है और पूजा करने पर कोरोना माई प्रसन्न होकर अपना क्रोध शांत कर लेंगी जिससे यह महामारी खत्म हो जाएगी।दरअसल कोरोना से जुड़ा यह अंधविश्वास भय और अशिक्षा का मेल है। आस्था के नाम पर उपजा महिलाओं का यह अजब-गजब व्यवहार जागरूकता की कमी और इस त्रसदी से जुड़ी भयावह स्थितियों को न समझ पाने का नतीजा है। जो वाकई अशिक्षा और जागरूकता की कमी की स्थितियों को सामने लाता है। अगर ऐसे ही होता रहा तो भविष्य में अंधविश्वास की ऐसी खबरें और उनसे जुड़ी अफवाहें अंधानुकरण और विवेकहीन सोच को बढ़ावा देने वाली साबित होंगी। आज जब भारत में संक्रमण के मामले दुनिया में सबसे ज्यादा होने के नजदीक हैं, ऐसे में यह अंधविश्वासी सोच इस लड़ाई को और मुश्किल बना देगी। इतना ही नहीं अंधविश्वास के चलते की जा रही पूजा-अर्चना की खबरें यूं ही आती रहीं तो यह अंधविश्वास भी व्यवसाय बन जाएगा। हमारे यहां पहले से भी कई बीमारियों के मामले में लोग झाड़-फूंक जैसे इलाज के तरीकों में उलङो हुए हैं। कोई हैरानी नहीं कि इस फेहरिस्त में कोरोना जैसे भयावह संक्रमण को भी शामिल कर लिया जाए। आपदा के इस दौर में ऐसे अंधविश्वास हालतों को भयावह बना देंगे। कोरोना महामारी से लडऩे के लिए अंधविश्वास नहीं, बल्कि जागरूकता और विश्वास जरूरी है। दैवीय आपदा मानकर कोरोना भगाने के अंधविश्वास के नाम पर हो रहे ऐसे जमावड़े कोरोना जैसी संक्रामक बीमारी को बढ़ावा देंगे। अफसोस की बात है कि महिलाएं आज भी अंधविश्वास के फेर में फंसी हैं। इस महामारी से हम विज्ञान का हाथ थामकर ही निकल सकते हैं। किसी भी महिला या पुरुष को अंधविश्वास में नहीं पडऩा चाहिए, क्योंकि कोरोना एक वायरस है। इसको लेकर जो वैज्ञानिक तथ्य हैं उनके अनुसार सतर्कता बरतने की सलाह मानना बेहद जरूरी है। शासन-प्रशासन के निर्देशों का पालन करके ही कोरोना से बचा जा सकता है। जरूरी है कि प्रशासनिक अमला भी ऐसे अंधविश्वास को मानने और इससे जुड़ी अफवाहें फैलाने वालों के साथ सख्ती बरते, ताकि रूढि़वादी सोच ही नहीं, इस बीमारी के विस्तार पाने पर भी लगाम लग सके।
किसानों को मोदी सरकार की बड़ी राहत, लोन चुकाने की अवधि बढ़ी; फसलों की रूस्क्क में भी बढ़ोतरी
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देश के लाखों किसानों को मोदी सरकार ने एक बड़ी राहत दी है। सरकार ने धान समेत 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी करने के साथ तीन लाख रुपये तक के शॉर्ट टर्म लोन चुकाने की अवधि बढ़ा दी है। इसके अलावा सरकार ने एक देश एक बाजार नीति को भी मंजूरी दे दी है। इससे किसान देश में कहीं भी अपनी फसल को बेच सकेंगे। पहले किसानों को अपनी फसल केवल एग्रीकल्चर प्रोडक्ट मार्केट कमेटी की मंडियों में ही बेचने की बाध्यता थी, लेकिन अब यह बाध्यता खत्म हो जाएगी। सरकार का दावा है कि इससे किसानों की आय बढ़ेगी। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का कहना है कि कृषि मंडी के बाहर किसान की उपज की खरीद-बिक्री पर किसी भी सरकार का कोई टैक्स नहीं होगा। ओपन मार्केट होने से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी। जिस व्यक्ति के पास पैन कार्ड होगा, वह किसान के उत्पाद खरीद सकता है। कई तरह के प्रतिबंधों के कारण किसानों को अपने उत्पाद बेचने में काफी दिक्कत आती है। कृषि उत्पाद विपणन समिति वाले बाजार क्षेत्र के बाहर किसानों द्वारा उत्पाद बेचने पर कई तरह के प्रतिबंध हैं। उन्हें अपने उत्पाद सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त खरीदारों को ही बेचने की मंजूरी है। इसके अतिरिक्त ऐसे उत्पादों के सुगम व्यापार के रास्ते में भी कई तरह की बाधाएं हैं। लेकिन संबंधित अध्यादेश के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी। इससे किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे। यह सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संकल्प लिया है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना किया जा सके। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के विकास के लिए नए प्रयास कर रही है। इस बीच खेती की लागत निरंतर बढ़ती जा रही है, लेकिन उस अनुपात में किसानों को मिलने वाले फसलों के दाम बहुत ही कम बढ़े हैं। इसका परिणाम किसान पर कभी नहीं खत्म होने वाले बढ़ते कर्ज के रूप में सामने आता है। चूंकि किसानों की उपज की बिक्री बिचौलियों और व्यापारियों के हाथों ज्यादा होती है, लिहाजा वे किसी न किसी तरह से उनके चंगुल में फंस ही जाते हैं। बिचौलिये का काम ही होता है किसान से अनाज सस्ते दाम में खरीद कर महंगे दाम में बेचना। इस पूरी प्रक्रिया में ज्यादातर असली मुनाफा बिचौलिए खा जाते हैं और किसान एवं उपभोक्ता दोनों ठगे रह जाते हैं। किसी फसल उत्पाद के लिए उपभोक्ता जो मूल्य देता है, उसका बहुत ही कम हिस्सा किसान को मिल पाता है। बाजार मूल्य का कभी-कभी तो 20 से 30 फीसद तक का हिस्सा ही किसान तक पहुंचता है। ऐसे में किसान खुशहाल कैसे रह सकता है। लेकिन एक देश एक बाजार नीति लागू होने के बाद बिचौलियों की भूमिका खत्म होगी और उन्हें अपनी फसल का बेहतर मूल्य मिलेगा। आखिर क्या कारण है कि प्रत्येक वर्ष लाखों किसान खेती से विमुख होते जा रहे हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में फिलहाल कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 फीसद तक है, जबकि इस पर देश की करीब 53 फीसद आबादी निर्भर है। इतना तो स्पष्ट है कि खेती का कुल क्षेत्रफल सिमटा है और किसानों की संख्या तेजी से कम हो रही है। आज नहीं तो कल इस प्रवृत्ति का प्रतिकूल असर खाद्यान्न उत्पादन पर भी पड़ेगा। इसलिए सरकार को समय रहते इस ओर पर्याप्त ध्यान देना होगा, वरना अन्न के उत्पादन में हमारी आत्मनिर्भरता प्रभावित हो सकती है जो भविष्य के लिहाज से कहीं से भी बेहतर नहीं है। इसलिए सबसे पहले सरकार को किसी भी तरह से किसानों की आमदनी बढ़ाने के तमाम व्यावहारिक उपायों को अमल में लाने पर जोर देना होगा।
कांग्रेस ने क्वात्रोची को बचाने में जोर लगाया वहीं मोदी सरकार ने काम माल्या पर शिकंजा कसने में किया

विजय माल्या के प्रत्यर्पण के सिलसिले में ताजा खबर यही है कि उसे भारत लाने में कुछ देर हो सकती है। इसके बावजूद उसका प्रत्यर्पण तय है और इसका कारण मोदी सरकार का रुख-रवैया है। हर सरकार की परख उसके रवैये से ही होती है। बोफोर्स सौदे में दलाली खाने वाले ओत्तावियो क्वात्रोची और बैंकों के कर्जदार भगौड़े विजय माल्या के मामलों की मिसाल से यह एक बार फिर साबित होता है। यह किसी से छिपा नहीं रहा कि क्वात्रोची के प्रति कांग्रेस सरकारों का रुख कैसा रहा। वहीं यह भी पूरे देश ने देखा कि भगौड़े विजय माल्या के खिलाफ नरेंद्र मोदी सरकार कैसा सुलूक कर रही है।
दो मामले दो सरकारों की अलग-अलग शासन शैलियों की बानगी पेश कर रहे हैं
यकीनन दोनों सरकारों के रुख में लोगों को भारी फर्क दिख रहा है। ये दो मामले देश की दो सरकारों की अलग-अलग शासन शैलियों की बानगी पेश कर रहे हैं। लोगों में कांग्रेस से दुराव और भाजपा से लगाव की एक वजह यह भी है। यह अकारण नहीं कि कालांतर में भाजपा अपने सहयोगियों के साथ अपनी राजनीतिक एवं चुनावी स्थिति मजबूत करती गई। दूसरी ओर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल एक तरह जनता से कटते गए। जनता इसे बड़े गौर से देखती है कि हमारे हुक्मरानों का सार्वजनिक धन के प्रति कैसा रवैया है वे लुटेरों को सजा देने-दिलाने की कोशिश करते हैं या बचाने की।
इस देश में सार्वजनिक धन की लूट एवं बंदरबांट की परिपाटी पुरानी है
आमजन को तो यही लगा कि कांग्रेस ने कदम-कदम पर बोफोर्स सौदे और उसके दलालों को बचाया। दूसरी ओर मोदी सरकार ने विजय माल्या के खिलाफ लंदन की अदालत में वर्षों तक लगातार केस लडकऱ उसके प्रत्यर्पण की नौबत ला दी है। माल्या जल्द ही भारत में होगा। उसने विभिन्न बैंकों के नौ हजार करोड़ रुपये गबन किए हैं। ये पैसे जनता के हैं। सरकारें इन पैसों की ट्रस्टी होती हैं। दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में सार्वजनिक धन की लूट एवं बंदरबांट की परिपाटी पुरानी है। इसी परंपरा से निकले माल्या जैसे शख्स ने पहले तो पूरी गारंटी दिए बिना बड़े कर्ज लिए और फिर उन्हें न लौटाने का मंसूबा बनाया। कर्ज न लौटाने को लेकर उसने तमाम बहाने बनाए, परंतु जब मोदी सरकार और बैंकों ने उस पर शिकंजा कसा तो वह रकम लौटाने के लिए तो तैयार हो गया, मगर अब केवल इससे ही बात नहीं बनेगी।
बोफोर्स घोटाले में क्वात्रोची को कांग्रेस सरकारों ने दशकों तक बचाया
इसके विपरीत क्वात्रोची को कांग्रेस सरकारों ने दशकों तक बचाया। अंत में ऐसी स्थिति बना दी जिससे वह साफ बच निकला। परिणामस्वरूप 1989 में हुए आम चुनाव और उसके बाद के चुनावों में कांग्रेस बहुमत के लिए तरस गई। बोफोर्स घोटाले ने मतदाताओं के मानस को इसलिए भी अधिक झकझोरा था, क्योंकि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला था। बोफोर्स घोटाला 1987 में उजागर हुआ था। उसके बाद से ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार के बयान बदलते रहे।
मतदाताओं ने 1989 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर दिया
इसीलिए आम लोगों ने समझा कि दाल में कुछ काला है। फिर मतदाताओं ने 1989 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर दिया। फिर वीपी सिंह सरकार के राज में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज की गई। स्विस बैंक की लंदन शाखा में क्वात्रोची के खाते फ्रीज करवा दिए गए। दलाली के पैसे उसी खाते में जमा थे।
कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित सरकारों ने बोफोर्स मामले को दबाने की कोशिश की
बाद में केंद्र में आईं कांग्रेसी या कांग्रेस समर्थित सरकारों ने इस मामले को दबाने की पूरी कोशिश की। नरसिंह राव सरकार के विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी ने तो दावोस में स्विस विदेश मंत्री से यहां तक कह दिया था कि बोफोर्स केस राजनीति से प्रेरित है। इस पर देश में भारी हंगामा हुआ तो सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा। सबसे बड़ा सवाल यही रहा है कि यदि राजीव गांधी ने बोफोर्स की दलाली के पैसे खुद नहीं लिए तब भी उनकी सरकार और अनुवर्ती कांग्रेसी सरकारों ने क्वात्रोची को बचाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर क्यों लगाया पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने 2016 में क्यों कहा कि मैंने बोफोर्स की फाइल दबवा दी थी
बोफोर्स मामले में 2004 को दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी केे खिलाफ आरोप खारिज कर दिया
आखिरकार चार फरवरी, 2004 को दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी तथा अन्य के खिलाफ घूसखोरी के आरोप खारिज कर दिए। याद रहे कि बोफोर्स मामले की चार्जशीट में 20 जगह राजीव गांधी का नाम आया था। वाजपेयी सरकार के अधिकारियों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने में लंबा वक्त लगा दिया। हालांकि 24 अप्रैल, 2004 को अभियोजन निदेशक एसके शर्मा ने फाइल पर लिखा कि विशेष अनुमति याचिका दायर की जा सकती है, पर मई में कांग्र्रेस सत्ता में वापस लौट आई। तब एक जून, 2004 को उप विधि सलाहकार ओपी वर्मा ने लिखा कि इस मामले में अपील का कोई आधार नहीं बनता।
विन चड्ढा और क्वात्रोची को बोफोर्स दलाली के रूप में 41 करोड़ दिए गए आयकर न्यायाधिकरण
इतना ही नहीं वर्ष 2011 में बोफोर्स मामले में एक और नाटकीय मोड़ आया। आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण ने 3 जनवरी, 2011 को कहा कि विन चड्ढा और क्वात्रोची को बोफोर्स दलाली के रूप में 41 करोड़ रुपये दिए गए। इसीलिए उन पर आयकर बनता है। चूंकि क्वात्रोची की कोई संपत्ति भारत में नहीं थी तो आयकर विभाग ने 6 नवंबर, 2019 को मुंबई में एक फ्लैट जब्त किया। वह फ्लैट विन चड्ढा के पुत्र हर्ष चड्ढा का था। इससे पहले वर्ष 2006 में केंद्र की मनमोहन सरकार ने एक एएसजी बी दत्ता को लंदन भेजा था। उन्होंने लंदन के बैंक में क्वात्रोची के फ्रीज खाते चालू कराए जिसमें से उसने रकम निकाल भी ली थी। वैसे बोफोर्स दलाली मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में है। इसमें याचिकाकर्ता अजय अग्रवाल की दलील है कि मामला तार्किक परिणति पर नहीं पहुंचा तो इसकी पुन सुनवाई हो।
मोदी सरकार माल्या के खिलाफ पूरी वसूली और सजा दिलाने के लिए कटिबद्ध
इसके उलट मोदी सरकार ने माल्या पर रुख इतना सख्त किया कि वह कर्ज देने को भी तैयार हो गया। किंतु अब सरकार न केवल पूरी वसूली के लिए प्रतिबद्ध है, बल्कि उसे सजा दिलाने के लिए भी कटिबद्ध ताकि यह मामला दूसरे लोगों के लिए दृष्टांत बनकर उनमें डर पैदा कर सके। क्या बोफोर्स मामले में भी हम ऐसी अपेक्षा कर सकते हैं?
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